Thursday, June 12, 2008

raahi

राही...

आज फिर मौसम सर्द है,
फैला हुआ कोहरा है,
दिल का वह पहचाना सा दर्द,
आज भी गहरा है।

फिर गुजर रहा हूँ, उन गलियों से,
दिला रही हैं याद, जो मुझे,
वे चंद पल,
जिन
में खो दिया था मैं ने ख़ुद को,
वह डगर जहाँ से, देखी थी मैं ने झांकी,
एक उजले सूरज की।

अब पहूँच गया हूँ,
गली के उस पार जहाँ मौजूद है,
अभी तक एक गवाह,
इस बरगद की छाँव में,
आसमान छूती शाखाओं तले,
हुआ था मुझे, एक धुंधला एहसास।
मिल गयी थी वह मंजील,
थी जिस की, कब से तलाश।

आज चलते हुए जब मैं,
गुजर चुका हूँ, उस बरगद के पास से
क्यों लगता हैं, कि कोई पुकार रहा है।
और मुझे पूछ रहा है,
'क्या यह वही जिंदगी है?
जो हुआ करती थी पहले,
जब लगते थे दिल में
हर पल उम्मीद के मेले?
और तब जब तूम इस दर्द से
थे अनजान, और अकेले ...'

तभी सुनाई दे रही है,
कही से एक आवाज,
जो बता रही है मुझे कि
वह तो बात थी अतीत की,
तूम तो कर रहे थे सफर।
राही का गुमराह होना,
यह दोष नहीं तेरा है,

दिला दे ख़ुद को, यह एहसास अब,
आज भी, यह सफर अधूरा है।

दोपहर की धूप में भटकता हुआ,
शाम से पहले,
पहूँच पाऊं अपनी मंजील तक,
यही हौसला मेरा है।
पर मुझे पता है,
दिल का वह पहचाना सा दर्द
आज भी गहरा है।

***

2 comments:

  1. Fandu prasad ji....nice poetry
    aap ne kavitaye likhna chalu kar diya kya??

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  2. Bas yunhi net pr surfing karte hue........aap ki kavita padhi bahut achhi lagi....."rahi".....lekin sayad kuchh isse achha bhi ho sakta tha....well kash main aap ki aur kavitaye padh pata....

    ReplyDelete

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