Thursday, July 12, 2007

रात अकेली थी

रात अकेली थी
दिया बुझ गया था
कोई आ के कानों में मेरे
जो भी चाहे
कह रहा था...

धरती सो रही थी
आसमां सो रहा था
हर डगर सो रही थी
हर गली सो रही थी
हर सेहेर सो रहा था

मेहमां सो रहे थे
मेजबां सो रहे थे
चोर सो रहे थे
पुलीस सो रही थी
वही नहीं, सरकार भी सो रही थी

बैल सो रहे थे
गाडी सो रही थी
बिल्ली सो रही थी
चुहे सो रहे थे और
कुत्ता भी सो रहा था

फूला चमन सो रहा था
उजडा चमन सो रहा था
ये सो रहे थे
वो सो रहे थे
सब सो रहे थे

हम खूशनसीब थे
के हम भी सो रहे थे
तब महसूस हुआ कि

रात अकेली थी
दिया बुझ गया था
कोई आ के कानों में मेरे
जो भी चाहे
कह रहा था...

***

2 comments:

  1. Hey Prasad Ji...kavita ki rup aur swaroop dekhkar prassannata hau..aap ne is kavita ke madhyam se jivan ke dwand ko pradarshit karne ki safal koshish ki hai....

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  2. धन्यवाद अरुणेंद्रजी!

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